गेहूं का पीला रतुआ या पीली गेरुई रोग एवं समेकित प्रबंधन

मुख्यतः पीला रतुआ (येलो स्ट्राइप रस्ट) रोग पहाड़ों के तराई क्षेत्रों में पाया जाता है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस रोग का प्रकोप पाया गया है। मैदानी क्षेत्रों में सामान्यतः गेहूँ की अगेती एवं पछेती किस्मों में यह रोग छोटे-छोटे खंडों में क्षेत्रीय केन्द्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केंद्र, लखनऊ के कृषि विशषज्ञो द्वारा रिपोर्ट किया गया है।
जनवरी और फरवरी में गेहूँ की फसल में लगने वाले पीला रतुआ (येलो स्ट्राइप रस्ट) रोग आने की संभावना रहती है। निम्न तापमान एवं उच्च आर्दता येलोरस्ट के स्पोर अंकुरण के लिए अनुकूल होता है एवं गहूँ को पीला रतुआ रोग लग जाता है। हाथ से छूने पर धारियों से फंफूद के स्फोर पीले रंग की तरह हाथ में लगते हैं। फसल के इस रोग की चपेट में आने से कोई पैदावार नहीं होती है, और किसानों को फसल से हाथ धोना पड़ जाता है। उत्तरी भारत के पंजाब, हरयाणा, हिमांचल प्रदेश एवं उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों में पिली गेरूई के प्रकोप से करीबन तीन लाख हेक्टेयर गेहूँ के फसल का नुकसान सन 2011 में हुआ था।
रोग के लक्षण व पहचान
यह रोग गेहूँ के फसल मे पक्सीनिया एस्ट्रीफोर्मिस स्पीशीज ट्रीटीसाई नामक फफूंद से होता हैं। इस बीमारी के लक्षण प्रायः ठंडे व नमी वाले क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिलती है, साथ ही पोपलर व सफेदे के पेड़ के आस-पास उगाई गई फसलों में यह बीमारी सबसे पहले आती हैं। पत्तों का पीला होना ही पीला रतुआ नहीं है, पीला रंग होने के कारण फसल में पोशक तत्वों की कमी, जमीन में नमक की मात्रा ज्यादा होना व पानी का ठहराव भी हो सकता है। पीला रतुआ बीमारी में गेहूँ के पत्तों पर पीले रंग का पाउडर बनता है, जिसे हाथ से छुने पर हाथ पीला हो जाता है। ऐसे खेतों में जाने से कपडे भी पीले हो जाते हैं।
पत्तों का पीला होना ही पीला रतुआ नहीं कहलाता, बल्कि पाउडर नुमा पीला पदार्थ हाथ पर लगना इसका लक्षण है।
पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग (स्पोर) की धारी दिखाई देती है, जा धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देती हैं।
पीला स्पोर पाउडर के रूप मे जमीन पर गिरा देखा जा सकता है।
रोग प्रभावित फसल के खेत में जाने पर कपड़े पीले हो जाते है तथा छूने पर पाउडर नुमा पीला पदार्थ हाथों में लग जाता है।
पहली अवस्था में यह रोग खेत में 10-15 पौधों पर एक गोल दायरे के रूप में शुरू होकर बाद में पूरे खेत में फैल जाता है।
उपचारः
(क) शस्य उपाय :
1) क्षेत्र के लिए सिफारिश की गई प्रतिरोधक क्षमता वाली किस्में / रोग रोधी किस्में ही लगाएं, तथा बुवाई समय पर करें।
2) खेत का निरीक्षण ध्यान से करे, विशेषकर वृक्षों के आस-पास उगाई गई फसल पर अधिक ध्यान दें।
(ख) यांत्रिक उपचारः
1) अगर पत्तो/बालियों पर पिली गेरूई का शुरूआती अवस्था में लक्षण दिखाई दे, तो ग्रसित पत्तो / बालियों को शार्प कैची से काटकर, पाली बैग में भरकर जला दे, ताकि हवा से इसका प्रकोप न बढ़ सकें।
(ग) जैविक उपचारः
1) 1 कि० ग्रा० तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर, 20 कि. ग्रा. लकड़ी के राख के साथ मिलाकर बीज बुआई या पौध रोपण से पहले खेत म छिडकाव करें।
2) सामान मात्रा मे गोमूत्र व नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर लें एवं 500 मि.ली. मिश्रण को 15-20 ली0 पानी में घोलकर प्रति एकड़ खेत के हिसाब से फसल पर तर-बतर कर छिड़काव करें।
3) गोमूत्र 10 लीटर व नीम की पट्टी 2.5 किलो व लहसुन 250 ग्राम काढ़ा बनाकर 80 से 90 लीटर पानी के साथ प्रति एकड़ छिडकाव करें।
4) 5 लीटर मट्ठा को मिट्टी के घड़े में भरकर 7 दिनों तक मिटटी के अंदर गाड़ दे एवं उसके बाद 40 लीटर पानी में एक लीटर मट्टा मिलाकर छिडकाव करें।
5) बुआई से पूर्व बीज एवं भूमि शोधन अवश्य करें। बीज शोधन हेतु 5 से 6 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किग्रा. बीज से शोधित कर बोये व भूमि शोधन हेतु 1 किग्रा ट्राइकोडर्मा को 25 किग्रा, गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर, 6 से 7 दिन छायेदार जगह पर जूट की बोरी से ढककर, सुबह शाम पानी का छीटा देकर (उचित तापमान एवं नमी हेतु) 7 दिन उपरांत बोआई से पूर्व भूमि शोधन हेतु प्रयोग करें।
घ) रासायनकि उपचार:
रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मि.ली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. (Propiconazole 25% EC) या पायेराक्लोसट्ररोबिन 133g/1+ इपोक्सीकोनाजोल 50 g/1 (Pyraclostrobin 133g/1+Epoxiconaxole 50g/1 SE') लीटर पानी में घोल बनाकर एकड़ प्रति छिड़के। रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करें।

उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में पीली गेरुई
रोग से प्रभावित गेहूँ के खेत का निरीक्षण
करते लखनऊ स्थित क्षेत्रीय केन्द्रीय एकीकृत
नाशीजीव प्रबंधन केन्द्र के कृषि विशेषज्ञ
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